शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

तुम ही बतादो ना ...

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मेरे हाथ में आज  ,
कागज़ और क़लम है  ...
'मगर,
नहीं मालूम क्या लिखूं
वो , जो  ...
तुम्हारी आँखों में अक्सर मैं देखता हूँ
या फिर वह  ,
जो शायद तुम  ...
मेरी निगाहों में पढ़ लेती होंगी
जी चाहता है ,
उन तमाम रातों का बयाँ करूँ  ...
जिन्होंने ,
बंद पलकों में  ...
दस्तक  देकर जगाया
या फिर जब ,
तारों की वादियों में मुझे  ...
एक चाँद और नज़र आया
सपनों की हक़ीक़त , बुनियाद ढूंढ़ती रही  ...
ख़्वाबों में मुलाक़ात , ज्यूँ ज्यूँ बढ़ती रही ...
या , मैं करूँ ज़िक्र  ...
उन चंद मुलाकातों का  ...
जिनकी बस यादें अधिक हैं
वो हसी ,
जो ओठों पर थिरकती है  ...
या फिर ,
वो ख़ुशी जो आँखों से छलकती है
और इन सभी बातों को  ...
जब मैं  ,
अपनी तक़दीर से जोड़ कर देखता हूँ
तो दिल पूछता है  ...
तुम मेरी क्या लगते हो  ...
क्या कहकर पुकारूँ तुम्हें  ...
तुम ही बतादो ना  ...
#सारस्वत
18101990

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